'साफ-सुथरा नहीं नैशनल अवॉर्ड देने का तरीका'

'ऑफिस-ऑफिस', 'बंटी और बबली', 'गोलमाल' सीरीज, 'आंखों देखी, 'कड़वी हवा', 'धमाल', 'वेलकम', 'चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस' ,'सन ऑफ सरदार', 'जॉली एलएलबी', 'भूतनाथ रिटर्न्‍स', 'मसान', 'दम लगा के हईशा' जैसी तमाम और फिल्मों में अपने दमदार अभिनय से लोगों के दिलों में जगह बनाने वाले बेहतरीन अभिनेता की राजस्थानी भाषा में बनीं फिल्म 'टर्टल' के नाम बेस्ट राजस्थानी फिल्म का किया गया है। यह दूसरा मौका था, जब संजय मिश्रा की किसी फिल्म को बेस्ट फिल्म के नैशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया जाएगा। राजस्थान के एक गांव में पानी की गंभीर समस्या पर यह फिल्म बनाई गई है। फिल्म का निर्देशन दिनेश एस यादव ने किया है। फिल्म को मिलने वाले नैशनल अवॉर्ड का जश्न मना रहे संजय मिश्रा ने नवभारतटाइम्स डॉट कॉम से की खास बातचीत। अकेले निर्माता को सराहा जाना और भी खुशी देता हैबहुत खुशी होती है, जब आपकी किसी फिल्म को नैशनल लेवल पर सम्मान मिलता है। इस तरह एक नए और अकेले निर्माता को सराहा जाना और भी खुशी देता है। एक नया निर्माता जो फिल्मों में पैसे कमाने नहीं आर्ट और सोशल कॉस के लिए फिल्म बना रहा है। यह दूसरी बार है, जब मेरी फिल्म को यह सम्मान प्राप्त हुआ है, इससे पहले फिल्म मसान को यह सम्मान मिला था। आपने बॉलिवुड में काम करते हुए 3 दशक पूरे कर लिए, तमाम बड़ी और बेहतरीन फिल्मों और लगभग सभी बड़े स्टार्स और निर्देशकों के साथ काम कर लिया, लेकिन आपको अब तक बेस्ट ऐक्टर का नैशनल अवॉर्ड नहीं मिला? शायद जो लोग राष्ट्रीय अवॉर्ड देते हैं, उनको मेरा काम अवॉर्ड की नहीं लगता होगा, मुझे किसी भी अवॉर्ड से दर्शकों के प्यार महत्वपूर्ण है। जब कोई मेरी फिल्म आंखो देखी देखकर मुझे गले लगा कर रोने लगता है, वही मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान होता है। शायद मुझे कभी नैशनल अवॉर्ड मिले तो लोग यह भी कहेंगे कि अरे इस फिल्म में क्यों मिला, 'कड़वी हवा', 'मसान' या 'आंखो देखी' के लिए मिलना चाहिए था। ठीक है उनकी नजर ( नैशनल अवॉर्ड वालों की ) भी जाएगी। अपनी हर छोटी जीत पर मैं अपने आपको खुद अवॉर्ड देता हूं एक और बात यह भी है कि यह अवॉर्ड देता कौन है। कौन लोग हैं जो अवॉर्ड के पीछे हैं। अवॉर्ड के अलावा और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा, मेरे लिए यह बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता है। मैं अपने आपको खुद अवॉर्ड देता हूं, अपने हर एक कदम के आगे बढ़ने पर। अब आप ही बताइए आंखो देखी जैसी फिल्म अगर आपने देखी है तो आपको लगता नहीं कि उस फिल्म को कुछ नहीं तो कॉस्ट्यूम के लिए अवॉर्ड मिलना चाहिए था, उसकी स्क्रिप्ट को तो अवॉर्ड मिलना चाहिए था न। आंखों देखी और कड़वी हवा को नैशनल अवॉर्ड वालों ने किसी काबिल ही नहीं समझानैशनल अवॉर्ड वालों ने उस फिल्म को किसी काबिल ही नहीं समझा, ऐसा होता है तो पता चलता है कि यह मामला कहां पर है। मैं इस समय बहुत अच्छा काम कर रहा हूं, राइटर, डायरेक्टर और प्रड्यूसर मुझे कहते हैं कि फिल्म की कहानी आपको ध्यान में रखकर लिखी गई है, मेरे लिए यही बहुत बड़ी बात है। मैंने ऐसा काम किया है कि आज से 15-20 और 25 साल बाद मेरे बच्चे यह कहेंगे कि मेरे पिता कमाल के ऐक्टर हैं।' नैशनल अवॉर्ड वालों से क्या उम्मीद और शिकायत करूं मुझे नैशनल अवॉर्ड नहीं मिला तो आपने मुझसे शिकायत की, लेकिन अब मैं शिकायत करूं भी तो किससे? यहां तो हाल कुछ इस तरह का हो गया है कि अपने खुद के बच्चों से उम्मीद नहीं की जा सकती, ऐसे में नैशनल अवॉर्ड वालों से क्या उम्मीद और शिकायत करूं। कभी पड़ जाएगी उनकी निगाह भी मुझ पर। मुझे कोई शिकायत नहीं और अवॉर्ड भी नहीं चाहिए। मैं अपना काम करता हूं। अपने ढंग से जीवन जीता हूं। नैशनल अवॉर्ड आपके लिए मायने कितना रखता है?कोई भी अवॉर्ड किसी के लिए भी बहुत मायने रखता है। जब आपका बेटा अपना रिजल्ट लेकर आए और आपको बताए कि पापा मुझे 95% मार्क्स मिले हैं, ऐसा सम्मान तो सबको चाहिए, इतना भी मायने नहीं रखता कि मैं दुःखी हो जाऊं। दर्शकों से प्यार मिल जाता है, छोटे-मोटे रोल से अब तक का सफर, जब मुझे ध्यान में रखकर रोल लिखे जा रहे हैं। यह लोग कौन हैं, जो नैशनल अवॉर्ड की टीम में हैं अगर नैशनल अवॉर्ड की टीम को ध्यान नहीं है मेरा तो इसका मतलब है कि कुछ अधूरापन है, मैं उन्हें खुद ध्यान नहीं दिलाऊंगा। क्या कभी उनको क्या उन्हें फिल्म कड़वी हवा में मेरा काम अच्छा नहीं लगा। यह लोग कौन हैं, जो नैशनल अवॉर्ड की टीम में हैं, मुझे समझ ही नहीं आता, क्या वह लोग आज की तारीख में काम करते हैं? इतना साफ-सुथरा नहीं है नैशनल अवॉर्ड देने का तरीका जब नैशनल अवॉर्ड की बात सामने आती है तो बहुत सारी बातें और चीजें सामने आती है, शायद पैसा, पार्टी, पॉलिटिक्स, देश, धर्म, जात-पात सब कुछ आ जाता है उसमें। इतना साफ-सुथरा नहीं है नैशनल अवॉर्ड देने का तरीका। आज कल कोई भी अवॉर्ड साफ-सुथरा नहीं है। पहले बिना काम घर में खाली बैठा रहता था, आज काम ही काम है एक समय था जब मेरे पास कोई काम नहीं था, मैं खाली बैठा था, आज ऐसा समय है, जब काम ही काम है, लेकिन अपने घर वालों को अच्छा समय देता हूं। बच्चों को खुद खाना बना कर खिलता हूं। मेरी दो बेटियां हैं, बड़ी बिटिया का नाम है पल है, जो 9 साल की है और छोटी बेटी का नाम लम्हा है, जो 4 साल की है। मेरी दोनों बेटियों को आर्ट, ऐक्टिंग और कलाकारी से लगाव है। छोटी बेटी लम्हा को तो ऐक्ट्रेस ही बनना है, बड़ी बेटी पल ने हाल ही में मोगली ( जंगल बुक ) थीम पर एक नाटक लिख कर मुझे सुनाया। इस नाटक में उसने मुझे विलन, छोटी बहन को दोस्त और मां यानी मेरी पत्नी किरण मिश्रा को सूत्रधार बनाया।


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