इरफ़ान खान: अंत में, बस उसे जाने देना है...

दुनिया के हरदिल अजीज अभिनेता इरफान खान नहीं रहे... सुनने वालों के लिए यकीन करना मुश्किल है, लेकिन जिंदगी भर एक 'वॉरियर' की तरह लड़ने वाले इरफान अपनी निजी और फिल्मी जिंदगी में ऐसी कई मिसालें छोड़ गए हैं, जिसे जमाना हमेशा याद करेगा। 'मुझे लगता है कि अंत में, पूरे जीवन का काम बस उसे जाने देना है, लेकिन जो चीज हमेशा सबसे ज्यादा दुख पहुंचाती है कि उसे अलविदा कहने में एक पल भी नहीं लगता है', यह डायलॉग है, अभिनेता इरफान खान की अंतरराष्ट्रीय फिल्म 'लाइफ ऑफ पाई' का, जो जिंदगी और मौत से जूझते हुए बुधवार को एक पल में अपने चाहने वालों को हमेशा के लिए अलविदा कह गए। इरफान सारी जिंदगी एक 'वॉरियर' की तरह पहले से तय पुराने ढर्रों, मानकों, मापदंडों को तोड़ते रहे, फिर वे ढर्रे परिवार के हों, समाज के या सिनेमा के। घरवालों का मानना था कि अदाकारी तो नाचने-गाने यानी निचले दर्जे का काम है, पर इरफान कहां सुनी-सुनाई, कही-बताई को आंख मूंदकर मानने वाले थे, वह कहते थे, 'मैं बहुत जल्दी यह समझ गया कि मैं सिर्फ पैसे कमाने के लिए काम नहीं कर सकता। मैं वही काम कर सकता हूं, जिसमें मेरा हृदय हो।' एक योद्धा की तरह अपनों से लड़कर अभिनय की दुनिया में फिर क्या था, एक योद्धा की तरह अपनों से लड़कर अभिनय की दुनिया में आ पहुंचे। यहां भी कम लंबी लड़ाई नहीं थी। लंबी-चौड़ी कद-काठी और चिकने-चुपड़े चेहरों पर मरने वाली फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें हीरोइज़म की नई परिभाषा गढ़नी थी, लेकिन अपने असीम टैलंट, बोलती आंखों और सहज अभिनय के दम पर उन्होंने यह भी कर दिखाया। उन्होंने फिल्मवालों की पुरानी सोच को तितर-बितर करते हुए नायकत्व की नई परिभाषा गढ़ी कि हीरो सिर्फ चॉकलेट बॉय या माचो मैन नहीं बल्कि खुरदरी चमड़ीवाला, आम सा दिखने वाला आपके बीच का एक लड़का भी हो सकता है। उनकी जिंदगी की फिलॉसफी ही यह थी कि आपको जो कुछ बताया गया है, उसे री-लुक करो। पहले से तय कंवेंशनल रास्ते पर चलना उन्हें मंजूर नहीं था। वे अपनी नई राह बनाना चाहते थे। वे दो टूक कहते थे, 'मैं टिपिकल चीजें करता ही नहीं हूं लाइफ में। न मैंने टिपिकल चीजें की हैं, न मैं करूंगा। मैं टिपिकल करने के लिए आया ही नहीं हूं। मैं रीडिफाइन करने के लिए आया हूं।' वे जब भी मिलते थे, देश, दुनिया, समाज, धर्म, सिनेमा बस पर अपनी फिलॉसफी, सोच और सपने दिल खोलकर जाहिर करते थे। चाहता हूं साठ के दशक वाला सिनेमा वापस ला सकूं सिनेमा को लेकर उनका कहना था, 'पहले हमारी एक जबान थी। अपनी शैली थी, जिसमें गाने थे, नाच था। अब गाने जैसे बोझ हो गए हैं, जो आप जबरदस्ती डाल देते हैं। उस जमाने में जो कहानी सुनाई जाती थी, वो आपके समाज की कहानी थी। आज हम अपने समाज की कहानी नहीं सुनाते हैं। आज हम ऊपरी तौर पर एक विषय लेते हैं। उसको एक्सप्लोर नहीं करते। साठ के दशक में जो सिनेमा बन रहा था, वो समाज का आइना होता था। उस जमाने के फिल्ममेकर को अगर कहानी के लिए सुबह उठकर चौकीदार से मिलने जाना होता था, तो वह जाता था। आज तो आप बैठे हुए हैं, कम्प्यूटर पे कहानी लिख दे रहे हैं। कहानी सुनाना आज की जरूरत नहीं है।' यहां लोगों में सिनेमा का पैशन नहीं है। इसी वजह से इंडस्ट्री फेल कर रही है। इसी वजह से हॉलिवुड आपके मार्केट को खा रहा है। यहां फिल्मों को थोथा एंटरटेनमेंट समझते हैं सब, जबकि ऐसा है नहीं। आप ऐसा एंटरटेनमेंट भी कर सकते हैं, जैसे हॉलिवुड में बैटमैन बनती है तो उसमें एक फिलॉसफी होती है। मैट्रिक्स बनती है तो उसमें आपको गीता की झलक दिखती है। इतनी गहरी उनकी समझ है। पूरी तरह से एंटरटेनिंग फिल्म बनाते हैं, लेकिन उसमें उनका फलसफा देखो आप। हम लोगों को लगता है कि बस ऊपरी तरह से बना लेंगे, नाच नचा लेंगे, चल जाएगा काम और वैसे ही चला रहे हैं।' 'मैं एंटरटेनमेंट को रीडिफाइन करना चाहता हूं' बकौल इरफान, 'मैं एंटरटेनमेंट को रीडिफाइन करना चाहता हूं। मैं हासिल के जमाने से कोशिश कर रहा हूं कि जो साठ के दशक का हमारा सिनेमा था, उसे वापस ला सकूं। हमारी अपनी कहानियां सुना सकूं, जो एंटरटेन भी करे, जिसमें नाच गाना भी हो, म्यूजिक भी हो लेकिन वो कहानी उठाई हुई न हो। मैं सिनेमा को उस तरफ ले जानना चाहता हूं।' मैं टिपिकल चीजें करने के लिए नहीं आया अपनी फिल्मों और किरदारों के चुनाव पर उन्होंने कहा, 'मैं टिपिकल चीजें करता नहीं हूं लाइफ में। न मैंने टिपिकल चीजें की हैं, न मैं करूंगा। मैं टिपिकल करने के लिए आया ही नहीं हूं, मैं रीडिफाइन करने के लिए आया हूं। मैं कन्वेक्शनल यानी जो चल रहा है, उसे मानता नहीं हूं। कन्वेक्शनल मुझे बहुत बोर करते हैं। मैं उन्हें तोड़ने में विश्वास रखता हूं, क्योंकि मेरा मानना है कि आपको अपनी जिंदगी को रीलुक करना चाहिए। हर उस चीज को, चाहे वो आपको धर्म के बारे में बताया गया है, चाहे ईश्वर के बारे में, चाहे देशभक्ति के बारे में, हर चीज को आपको अपने नजरिए से दोबारा देखना और समझना चाहिए। तभी आप जिंदा हो, नहीं तो आप चलता-फिरता एक कंप्यूटर हो, जिसमें एक प्रोग्रामिंग कर दी गई थी बचपन में और उसी प्रोग्रामिंग को आप आगे बढ़ाते जा रहे हो। जब तक आपका जाती योगदान नहीं होगा, तब तक आप जीवित नहीं हैं। मैं जब फिल्में या कैरक्टर चूज करता हूं, तो उनमें ढूंढ़ता हूं कि उसका हीरोइजम क्या है? पान सिंह तोमर पंद्रह लोगों को मारता नहीं है, हीरो बनने के लिए। वह एक सवाल उठाता है, उसके लिए उसका आत्मसम्मान, जो है, वह जरूरी है, उसके लिए वो बगावत करता है, ये उसका हीरोइजम है। हीरोइजम को अगर आप बार-बार एक ही तरह से देखते रहोगे कि कैसे मैं पंद्रह लोगों की ऐसी-तैसी कर सकता हूं तो वो बहुत बोरिंग है। इसी तरह रोमांस क्या है? मेरे लिए किसी से एक तरफा मोहब्बत भी रोमांस है या फिर लंचबॉक्स में अगर एक मेरी इच्छा है कि कभी उससे मिल जाए तो वो भी रोमांस है।' धर्म का असल अर्थ है, तू सोच, तू खोज इरफान उन अभिनेताओं में से रहे हैं, जो धर्म को लेकर भी हमेशा मुखर रहे हैं। धर्म पर चर्चा पर वह कहा करते, 'धर्म की ट्रैजेडी ये है कि वो मानव समाज को आजाद करने के लिए आया है, लेकिन उसके पैरों की बेड़ी बन गया है। लोग उसका असल मकसद भूल जाते हैं और कर्मकांडों में अटक जाते हैं। उन्हें लगता है कि कर्मकांड कर लिया तो हो गया। आपको एक कहानी सुनाई गई है कि मरने के बाद ये होगा और आप उसको मान लेते हैं। हर तरह के धर्म में अलग-अलग कहानी सुना दी गई है और सबने उसको सीरियसली मान लिया है। धर्म आया है कि आप खुद भगवान का रूप बन सकें, लेकिन वो जो मोटी-मोटी कहानियां जो बना दी गई है लोग उन कहानियों, उन चमत्कारों में यकीन करने लगते हैं। धर्म का असल अर्थ है, तू सोच, तू खोज, जब तक आप ईश्वर, अल्लाह को ढूंढ़ने की जरूरत नहीं समझते तब तक धर्म आप पर बोझ हैं। जिस दिन आप उसे ढूंढ़ लेंगे आपके लिए, गीता, कुरान, बाइबिल सब एक हो जाएंगे। जब तक आप आंखें बंद करके एक को मानेंगे, तो आप सिर्फ भेड़-बकरी हैं, जिसे चराने वाले हांक रहे हैं और आप इस्तेमाल हो रहे हैं।' दिल्ली की गलियों पर फिल्म बनाना चाहते थे एक इंटरव्यू के दौरान इरफान ने कहा था, 'मुझे दिल्ली की गलियों का माहौल बहुत पसंद है। मैं तो पूरी फिल्म बनाना चाहता हूं, दिल्ली की गलियों पर। वहां का अपना एक अलग फ्लेवर है, अलग कल्चर है, एक अलग लाइफ है।' 'तभी आप जिंदा हो' इकफान कहते, 'मेरा मानना है कि आपको अपनी जिंदगी को रीलुक करना चाहिए। धर्म, ईश्वर, देशभक्ति, हर उस चीज को, जिसके बारे में आपको बताया गया हो। हर चीज को अपने नजरिए से दोबारा देखना और समझना चाहिए। तभी आप जिंदा हो, नहीं तो आप चलता-फिरता एक कम्प्यूटर हो, जिसमें एक प्रोग्रामिंग कर दी गई थी बचपन में और उसी प्रोग्रामिंग को आप आगे बढ़ाते जा रहे हो। जब तक आपका जाती योगदान नहीं होगा, तब तक आप जीवित नहीं हैं।'


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